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Thursday, March 27, 2025
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बाबा आमटे ने रईसी छोड़ कुष्ट रोगियों की सेवा क्यों चुनी, 5 हजार KM की पदयात्रा किसके लिए की?


बाबा आमटे ने रईसी छोड़ कुष्ट रोगियों की सेवा क्यों चुनी, 5 हजार KM की पदयात्रा किसके लिए की?

26 दिसंबर 1914 को जन्मे मुरलीधर देवीदास आमटे बाद में बाबा आमटे के नाम से मशहूर हुए.

उस कुष्ठ रोगी के शरीर का एक हिस्सा गलकर निकल गया था. रोगी की दारुण दशा देख बाबा आमटे विचलित और भयभीत हो गए थे. डरकर वे वहां से भाग लिए थे. लेकिन उन्हें दृढ़ संकल्प से वापसी करनी थी. एक-दो दिन के लिए नहीं बल्कि शेष लंबे जीवन के लिए. इसके लिए डर से उबरना जरूरी लगा. लेकिन कैसे? उन्होंने रास्ता चुना पीड़ित कुष्ठ रोगियों की देखभाल और उन्हें प्यार देने का. एक अमीर परिवार में जन्मे बाबा कभी जीने की शानदार शैली के कायल थे. लेकिन 34 वर्ष की उम्र में उस कुष्ठ रोगी ने उनका जीने का अंदाज पूरी तौर पर बदल दिया.

महात्मा गांधी के सान्निध्य ने नया रास्ता दिखाया. फिर बाकी उम्र पीड़ितों के कष्ट बांटने और सेवा-समर्पण के नए प्रतिमान गढ़ने में गुजारी. सेवा भी की. लोगों को जागरूक भी किया. और जरूरत पर अहिंसक संघर्ष भी किया. रास्ता कठिन था. लेकिन खुद की संकल्प शक्ति और समर्पण के साथ पत्नी साधना ताई, बेटे और बहुओं की सहयात्रा ने सब कुछ मुमकिन किया. पुण्यतिथि के अवसर पर पढ़िए बाबा आमटे की प्रेरक जीवन यात्रा के कुछ प्रसंग,

अमीर परिवार में जन्मे, तब शौक भी थे खूब

26 दिसंबर 1914 को जन्मे मुरलीधर देवीदास आमटे बाद में बाबा आमटे के नाम से मशहूर हुए. पिता देवी दास ब्रिटिश सरकार के एक अधिकारी थे. वर्धा जिले के धनी जमींदारों में उनकी गिनती थी. जाहिर है कि ऐसे समृद्ध परिवार में जन्मे बाबा के पास सुख-साधन भरपूर थे. शौक भी उसी के मुताबिक थे. बढ़िया खाने-पहनने का शौक था. पास में एक बंदूक थी. जब-तब शिकार के लिए जंगल रवाना हो जाते थे.

माता-पिता अपनी इस सबसे बड़ी संतान को प्यार से बाबा के नाम से पुकारते थे. उसे किसी चीज की कमी न हो इसकी ओर से खास फिक्रमंद रहते थे. एक स्पोर्ट्स कार भी दिलवा दी थी. बाबा ने वकालत की पढ़ाई की और फिर आजीविका के लिए उसी पेशे को अपनाया. वर्धा में उनकी वकालत अच्छी चली.

Baba Amte Interesting Facts

गांधी से संपर्क, स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़ाव

महात्मा गांधी के संपर्क में आने के बाद वे स्वतंत्रता आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़े. एक वकील के तौर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के बंदियों के लिए डटकर जूझे. सिर्फ आंदोलनकारी के तौर पर ही नहीं आचार-विचार के स्तर पर भी गांधी का अनुकरण किया. कीमती कपड़ों के शौक को किनारे किया.

खादी धारण की और चरखे पर सूत भी काता. खेतों में अन्न बोया. दूसरों को प्रेरित करने के लिए सिर्फ बातें नहीं की. खुद उसे सच करके दिखाया. सहयोग-सहकार के रास्ते चलते जहां जरूरी था, वहां प्रतिरोध और संघर्ष के स्वर भी उठाए. लेकिन इसके लिए साधन के तौर पर हमेशा गांधी से मिली सत्य और अहिंसा की सीख की गांठ बांधे रखी. अंत तक गांधी के रास्ते चले.

साधु-संत या चमत्कारी बाबा नहीं!

बाबा आमटे साधु-संत नहीं थे. चाहते भी नहीं थे कि लोग उन्हें ऐसा कुछ समझें. किसी चमत्कार या अलौकिक शक्ति का दावा भी नहीं करते थे. हमेशा इसे दोहराते थे. गांधी और आंबेडकर के कार्य-विचार उन्हें दलितों-पीड़ितों और वंचितों की भलाई के लिए प्रेरित करते थे. माता-पिता उन्हें प्यार से बाबा उपनाम से पुकारते थे और आगे यह संबोधन स्थायी तौर पर उनसे जुड़ गया.

उनकी सोच थी, “दान नष्ट करता है, काम निर्माण करता है.” मिशन था कमजोरों को जीवंत करना और उन्हें सशक्त बनाना. कुष्ठ रोगियों के लिए उन्होंने आनंदवन केंद्र स्थापित किया. आदिवासियों के लिए हेमलकास और अशोकवन की शुरुआत की , जिसकी छाया में तमाम लोगों को जीने का नया अर्थ मिला. बाबा खुद खेतों में काम करते थे. भवनों के निर्माण में सक्रिय सहयोग देते थे. वृक्षारोपण करते थे. उन्हें यह सब करते देख साथ मौजूद लोग ऊर्जा-उमंग से भर अपने दुख-तकलीफें भूल जाते थे.

कुष्ठ रोगियों की सहायता के साथ सोच बदलने के लिए जूझे

कुष्ठ रोगियों की दुर्दशा और समाज की उनके प्रति उदासीनता-अन्याय से बाबा द्रवित थे. परिवार-समाज से बहिष्कृत ऐसे रोगी इलाज के अभाव में तिल-तिल कर मरते थे. बाबा आमटे ने सिर्फ कुष्ठ रोगियों की सेवा-सहायता का बड़ा काम ही नहीं किया अपितु समाज की इस रोग के प्रति सोच बदलने के लिए भी जीवन पर्यंत जुटे रहे. कलकत्ता स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन में कुष्ठ रोग उन्मुखीकरण पाठ्यक्रम से प्रशिक्षित होने के बाद उन्होंने पत्नी साधना ताई, दो बेटों और 6 कुष्ठ रोगियों के साथ अपना अभियान शुरू किया.

कुष्ठ के कारण विकलांग मरीजों के इलाज और पुनर्वास के लिए 11 साप्ताहिक क्लीनिक और 3 आश्रम स्थापित किए. उनके प्रयास इसलिए और विलक्षण थे कि पत्नी सहित पूरा परिवार पूरी निष्ठा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उनके साथ जुटा रहा. बाबा ने 15 अगस्त 1949 को पत्नी साधना आमटे के साथ एक पेड़ के नीचे आनंदवन में कुष्ठ रोग के मरीजों की सुध लेने और समाज को जागरूक करने के अभियान का श्रीगणेश किया था.

1951 में 258 एकड़ में फैले आनंदवन के निर्माण की दिशा में काम आगे बढ़ा. कुष्ठ रोगियों के इस आश्रय स्थल में अब दो अस्पताल, एक विश्वविद्यालय, एक अनाथालय और यहां तक ​​कि नेत्रहीनों के लिए भी एक विद्यालय संचालित हो रहा है.आनंदवन न केवल कुष्ठ पीड़ितों बल्कि अन्य विकलांगों को भी संरक्षण देता है. वहां निवास करने वालों में आत्मसम्मान की भावना उत्पन्न करने के साथ ही श्रम के लिए प्रेरित कर आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनाने के उसके प्रयास भी अनूठे हैं.

Baba Amte With Students

आदिवासियों बीच भी किया काम

बाबा की कोशिशें बहुआयामी रहीं. 1973 में गढ़चिरौली जिले में माडिया गोंड आदिवासियों के बीच उन्होंने लोक बिरादरी परियोजना शुरू की. इसके तहत जनजातियों को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करने के लिए अस्पताल प्रारंभ किया गया. बच्चों की पढ़ाई और उनमें रोजगार कौशल विकसित करने के लिए आवासीय स्कूल खोला गया. बेरोजगार युवाओं के लिए प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किया. पशुओं तक की उन्होंने फिक्र की. शिकार के दौरान अनाथ और घायल पशुओं के लिए उन्होंने एक पार्क स्थापित किया. बाद में इसे ‘बाबा आमटे एनिमल पार्क’ नाम दिया गया.

देश-समाज से जुड़े सवालों को लेकर सदा सचेत

सेवा सहयोग के इन प्रयासों के बीच बाबा आमटे देश-समाज से जुड़े सवालों को लेकर भी सचेत रहे. भाई-चारे, शांति-सद्भाव और समाज में समता-समरसता-एकता के उद्देश्य से बाबा आमटे ने दिसंबर 1985 में भारत जोड़ो मिशन शुरू किया. 72 साल की उम्र में वे अपने 116 युवा सहयोगियों के साथ कन्याकुमारी से कश्मीर की 5,042 किलोमीटर की पदयात्रा पर निकले. तीन साल बाद उनकी असम से गुजरात तक की लंबी पदयात्रा संपन्न हुई.

1990 में वे मेधा पाटकर के साथ नर्मदा बचाओ आंदोलन में शामिल हुए. इस आंदोलन के लिए आनंदवन छोड़ते समय उन्होंने कहा था कि अब मैं नर्मदा के साथ रहूंगा. यह लड़ाई नर्मदा पर सरदार सरोवर बांध के निर्माण के कारण व्यापक पैमाने पर विस्थापन और पर्यावरण को इससे होने वाली क्षति के विरोध में थी. इस आंदोलन ने उनके अनेक समर्थकों – प्रशंसकों को उनसे दूर भी किया लेकिन वे अडिग रहे.

आखिरी वर्षों में रीढ़ की हड्डी की समस्या से बिस्तर पर थे लेकिन फिर भी वे वहीं से अपने प्रकल्पों का संचालन और आगंतुकों से संवाद करते रहे. देश के दूसरे बड़े नागरिक सम्मान पद्मविभूषण के साथ ही उन्हें अन्य राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अलंकरण प्राप्त हुए. युवाओं से वे काफी उम्मीद करते थे और उन्हें जागरूक करने की उनकी कोशिशें निरंतर जारी रहीं. 9 फरवरी 2008 को उनकी जीवन यात्रा थम गई लेकिन उनके द्वारा शुरू किए गए प्रकल्प पीड़ितों – वंचितों के जीवन में आज भी रोशनी बिखेर रहे हैं.

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