इंदिरा गांधी ने अपनी रणनीतियों से साबित किया कि जहां नेहरू-गांधी परिवार है, वही असली कांग्रेस है.
1967 में इंदिरा गांधी दूसरी बार प्रधानमंत्री बनीं. अब वे सिंडीकेट के नाम से पहचाने जाने वाले कांग्रेस के बुजुर्ग नेताओं के दबाव से मुक्त होने की जल्दी में थीं. पार्टी का यह प्रभावशाली धड़ा उन्हें प्रधानमंत्री पद तक पहुंचाने का बराबर डंका बजाता रहता था. 1967 में ही अगले राष्ट्रपति का चुनाव होना था. सिंडीकेट डॉक्टर राधाकृष्णन को दूसरा टर्म देना चाहता था. इंदिरा ने अल्पसंख्यक दांव के जरिए इस पद पर डॉक्टर जाकिर हुसैन की ताजपोशी करा दी. दुर्भाग्य से 3 मई 1969 को डॉक्टर हुसैन का निधन हो गया. नए राष्ट्रपति की उम्मीदवारी को लेकर एक बार फिर शक्ति परीक्षण की नौबत थी. इंदिरा के विरोध के बाद भी पार्टी ने संजीव रेड्डी को अपना उम्मीदवार बनाया.
इंदिरा ने निर्दलीय वी.वी. गिरि को समर्थन दिया. अंतरात्मा की आवाज के नाम पर उनके लिए समर्थन मांगा. गिरि चुनाव जीते. गिरि की यह जीत इंदिरा की जीत थी. पार्टी के विरोधी धड़े ने अनुशासनहीनता के नाम पर इंदिरा गांधी का पार्टी से निष्कासन किया. यह निष्कासन 1969 में कांग्रेस के ऐतिहासिक विभाजन का कारण बना.
लोकसभा में अल्पमत में होने के बाद भी कुछ दलों के समर्थन से उनकी सरकार कायम रही. गरीब समर्थक छवि लेकर 1971 के मध्यावधि चुनाव में उन्होंने धमाकेदार जीत दर्ज की. अब सरकार और संगठन दोनों पर ही इंदिरा का कब्जा था. यह वो मुकाम था, जिसने तय किया कि नेहरू-गांधी परिवार ही असली कांग्रेस है.
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संजीव रेड्डी की उम्मीदवारी को इंदिरा ने खतरे की घंटी माना
राष्ट्रपति के लिए संजीव रेड्डी की उम्मीदवारी को इंदिरा गांधी ने अपने लिए खतरे की घंटी माना था. वे मुकाबले के लिए तैयार थीं. 16 जून 1969 को उन्होंने मोरारजी देसाई की वित्त मंत्री पद से छुट्टी कर दी. मीडिया को इंदिरा ने बताया कि सरकार के प्रगतिशील एजेंडे में मोरारजी बाधक बन रहे हैं. हालांकि देसाई अभी उपप्रधानमंत्री पद पर कायम थे. लेकिन इस छीछालेदर के बाद उनके पास इस्तीफे के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था.
इंदिरा की अगली घोषणा और धमाकेदार थी. उन्होंने एक अध्यादेश के जरिए देश के चौदह निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा कर दी. तब आकाशवाणी पर इंदिरा ने कहा था कि ये बैंक सिर्फ अमीरों के लिए काम कर रहे हैं. ये गरीबों को कर्ज नहीं देते. इस घोषणा से गरीबों को भले कुछ न मिला हो लेकिन तमाम गरीब सड़कों पर इंदिरा के समर्थन में नारे लगाते निकल पड़े. इंदिरा के करीबी रहे कुंवर नटवर सिंह के मुताबिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण का इंदिरा गांधी का फैसला मोदी सरकार की नोटबंदी स्कीम जैसा था,जिसकी घोषणा के पहले उंगली पर गिने लोगों को ही जानकारी रही होगी.
रेड्डी की उम्मीदवारी तय होने पर इस्तीफे को सोचा?
बेशक इंदिरा ने बाद में संजीव रेड्डी की हार के जरिए पार्टी के विरोधी धड़े को पस्त किया लेकिन रेड्डी की उम्मीदवारी को लेकर ऐसा भी अवसर आया था, जब इंदिरा प्रधानमंत्री पद से इस्तीफे को सोच रहीं थीं. उस दौर में इंदिरा के करीबी रहे युवातुर्क चंद्रशेखर ने अपनी आत्मकथा में इस प्रसंग का उल्लेख करते हुए लिखा है,”बंगलौर में कांग्रेस संसदीय बोर्ड की बैठक में इंदिरा गांधी की नहीं चली और बहुमत से संजीव रेड्डी उम्मीदवार चुन लिए गए. किसी ने मुझे कहा कि इंदिरा बुला रही हैं. अकेले सी.सुब्रह्मण्यम उनके पास थे. दूसरा खेमा जश्न मना रहा था. सुब्रह्मण्यम ने चंद्रशेखर से कहा, “प्राइम मिनिस्टर इस्तीफा देना चाहती हैं. मैंने कहा, “वो क्यों इस्तीफा देंगी. उन्हें लड़ना चाहिए.” बाद में भी इंदिरा को भी उन्होंने यही सलाह दी. यद्यपि उस समय पार्टी के निर्णय के नाम पर इंदिरा हिचकिचा रही थीं.
अंतरात्मा की आवाज के नाम पर वोट की अपील
पार्टी नेतृत्व का निर्देश था कि इंदिरा संजीव रेड्डी के पक्ष में मतदान की अपील करें. उन्होंने इसकी अनदेखी की. वे वी.वी. गिरि को समर्थन का फैसला कर चुकीं थीं. समर्थकों तक उनका संदेश भी पहुंच चुका था. लेकिन इसे उन्होंने 20 अगस्त 1969 को होने वाले मतदान के चार दिन पहले सार्वजनिक किया.
इसके जरिए देश की चुनावी राजनीति, वोट की मांग के लिए एक नए जुमले से परिचित हुई. यह था ‘ अंतरात्मा की आवाज’ के नाम पर गिरि के पक्ष में मतदान का अनुरोध. संजीव रेड्डी के लिए जनसंघ से समर्थन की सिंडीकेट की कोशिशों ने इंदिरा को साम्प्रदायिकता के नाम पर विरोधी खेमे को घेरने का भरपूर मौका दिया. यह एक कड़ा मुकाबला था. रेड्डी और गिरि के अलावा सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस के.सुब्बाराव तीसरे उम्मीदवार थे. पहली वरीयता में गिरि जीत लायक वोट नहीं जुटा सके थे. लेकिन सुब्बाराव समर्थकों से मिले दूसरी वरीयता के वोटों ने गिरि को राष्ट्रपति की कुर्सी पर पहुंचा दिया.
सुलह के सारे रास्ते बंद
दोनों खेमों के बीच सुलह के सारे रास्ते बंद हो चुके थे. इंदिरा कांग्रेस अध्यक्ष एस.निजलिंगप्पा की बैठकों की अनदेखी शुरू कर चुकी थीं. अगले कुछ महीने अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के बीच तीखे पत्राचार का दौर चला. उधर पार्टी के विरोधी खेमे सार्वजनिक तौर पर आपस में जूझ रहे थे. गिरि की जीत ने इंदिरा का एक ओर हौसला बढ़ाया और दूसरी ओर संसद से आम लोगों के बीच तक उनके आधार को विस्तार मिला.
वे चाहती थीं कि विरोधी खेमा पार्टी से उनके निष्कासन की घोषणा करे. ताकि समर्थकों के साथ ही जनता को भी वे बता सकें कि गरीबों के हित में कदम उठाने के कारण ऐसा हो रहा हैं. 12 नवंबर 1969 को इंदिरा को कांग्रेस से निष्कासित करते हुए एस.निजलिंगप्पा ने कहा, “बीसवीं सदी का इतिहास ऐसी त्रासदियों से भरा है, जब कोई नेता लोकप्रिय जनमत या लोकतांत्रिक संस्थाओं की बदौलत सत्ता में आकर लोकतंत्र पर हावी हो जाता है और निहित स्वार्थी चमचों से घिरकर आत्ममोह का शिकार हो जाता है. ऐसी हालत में ये स्वार्थी तत्व भ्रष्टाचार और आतंक का सहारा लेकर जनता और विपक्ष की आवाज को खामोश करने और तानशाही थोपने का प्रयास करते हैं. कांग्रेस को इन प्रवृत्तियों से लड़ाई लड़नी है.”
संगठन से संसद तक भारी
दिसंबर 1969 में औपचारिक तौर पर कांग्रेस का विभाजन हुआ. अहमदाबाद में सिंडीकेट खेमे की बैठक हुई. 1977 में जनता पार्टी के विलय तक यह पार्टी कांग्रेस (ओ) ऑर्गेनाइजेशन या संगठन के नाम से जानी गई. इंदिरा समर्थकों की बंबई की बैठक में कांग्रेस (आर) यानी रिक्वजनीस्ट (सुधारवादी) अस्तित्व में आई.
इंदिरा सिर्फ राष्ट्रपति चुनाव में ही नहीं भारी पड़ी. संगठन के मामले में भी उन्होंने कांग्रेस के बुजुर्ग खेमे को पीछे छोड़ा. उनकी बैठक में आखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के 705 में 446 और लोकसभा-राज्यसभा के 429 में 310 सांसद शामिल हुए. लोकसभा के सिर्फ 220 सदस्यों के समर्थन के चलते हालांकि उनकी सरकार अल्पमत में थी लेकिन उनकी गरीब समर्थक नई छवि ने कम्युनिस्ट और कुछ अन्य दलों को आसानी से उनके समर्थन में मोड़ दिया.
पार्टी पर कब्जे के साथ अगले चुनाव की तैयारी
पार्टी पर कब्जे की लड़ाई इंदिरा जीत चुकी थीं. लेकिन इस पूरे संघर्ष के गुजरे महीनों में पूरा तंत्र उनकी छवि चमकाने की कोशिशों में जुटा रहा. वो रेडियो और अखबारों का जमाना था. हर तरफ इंदिरा छाई हुईं थी. उनके समर्थन में सड़कों पर भीड़ उतारी जा रही थी. दिल्ली में यह भीड़ प्रधानमंत्री के आवास पर पहुंचकर उनकी गरीब समर्थक नीतियों के लिए उनकी जय जयकार करती थी. प्रधानमंत्री के तौर पर वे अब तक जो नहीं कर सकी थीं, उसकी जिम्मेदारी वे सफलतापूर्वक पार्टी के उन बूढ़े नेताओं पर थोप चुकी थीं, जो उन्हें फैसले नहीं लेने दे रही थी.
अभी उनके तरकश में गरीबों को लुभाने के लिए राजाओं के प्रिवी पर्स के खात्मे का तीर मौजूद था. वो अचूक चुनावी नारा कि,” मैं कहती हूं कि गरीबी हटाओ, वे कहते हैं कि इंदिरा हटाओ” आकार ले रहा था. 1952 के पहले लोकसभा चुनाव के मौके पर उनके पिता पंडित नेहरू कुछ ऐसे ही हालात से रूबरू हुए थे. उनके विरोध के बाद भी पुरुषोत्तम दास टंडन 1950 में अध्यक्ष चुन लिए गए थे. नेहरू ने कुछ दिनों के बाद ही टंडन को इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया था. लेकिन उन्होंने पार्टी नहीं बंटने दी थी. सबको साथ लेकर चुनाव मैदान में उतरे. पर इंदिरा के यहां असहमति के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी. उनकी विराट छवि के आगे संगठन बौना हो चुका था. अगला 1971 का चुनाव रहा हो या उनके जीवनकाल के आगे के चुनाव. सब उन्हीं के नाम पर लड़े गए. आगे भी साबित हुआ कि जहां नेहरू-गांधी परिवार है, वही असली कांग्रेस है.
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