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Wednesday, December 4, 2024
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जब लगा यह राजनीति का अंत है… ग्वालियर की वो हार जिसने अटल बिहारी को दी थी गहरी चोट | Lok Sabha election 1984 when congress Gwalior candidate madhavrao scindia defeated BJP candidate Atal bihari Vajpayee


जब लगा यह राजनीति का अंत है... ग्वालियर की वो हार जिसने अटल बिहारी को दी थी गहरी चोट

1984 में ग्वालियर में माधवराव सिंधिया से मिली हार ने अटल बिहारी वाजपेयी को सबसे ज्यादा पीड़ा दी थी. 

शुरुआत तो 1955 में लखनऊ उपचुनाव में हार के साथ ही हुई थी.1957 में बलरामपुर ने जिताया लेकिन साथ लड़ी दो अन्य सीटों लखनऊ और मथुरा में वे क्रमशः तीसरे और चौथे नंबर पर थे.1962 में बलरामपुर और लखनऊ दोनों ने ही निराश किया था. लेकिन ये शुरुआती दौर था. पार्टी भारतीय जनसंघ नई थी. कांग्रेस का वर्चस्व था. पंडित नेहरू का आभामंडल प्रखर था. उसके मुकाबले जनसंघ और अटल बिहारी अपनी जगह बना रहे थे. लेकिन 1984 में ग्वालियर में माधवराव सिंधिया के मुकाबले हुई हार ने अटल बिहारी वाजपेयी को सबसे ज्यादा पीड़ा दी थी.

इस चुनाव में पार्टी भी बुरी तरह हारी थी. इस हार की लाल कृष्ण आडवाणी को पहले से ही आशंका थी. इसीलिए आडवाणी चाहते थे कि अटल बिहारी ग्वालियर के साथ कोटा से भी चुनाव लड़ें. हार के बाद ग्वालियर से दिल्ली की कार यात्रा में कुछ देर उनके साथ रहे पत्रकार अजय बोस ने अटल बिहारी को बहुत दुखी पाया था,”

वे इतने दुखी थे कि कुछ बोल नहीं पा रहे थे. उन्हें लग रहा था कि यह उनकी राजनीति का अंत है. वे बहुत विषाद में थे. यह केवल व्यक्तिगत अपमान नहीं था. उन्हें लग रहा था कि उनकी बनाई हुई पूरी राजनीति ध्वस्त हो गई.”

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सहानुभूति लहर में विपक्ष का सफाया

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति की आंधी के बीच 1984 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष का लगभग सफाया हो गया था. इस चुनाव में कांग्रेस को 515 में 403 सीटें प्राप्त हुई थीं. विपक्ष के तमाम दिग्गजों को करारी हार का सामना करना पड़ा था. इस सूची में अटल बिहारी बाजपेई भी शामिल थे. वे कांग्रेस के माधव राव सिंधिया के मुकाबले बड़े अंतर से पराजित हुए थे. सिंधिया को 3,07,735 और बाजपेई को 1,32,141वोट प्राप्त हुए थे.

जनता पार्टी से अलग होकर अस्तित्व में आई भाजपा का यह पहला लोकसभा चुनाव था. पार्टी सिर्फ दो सीटों पर सिमट गई थी. इनमें एक सीट गुजरात जहां उसका जनता पार्टी से और दूसरी सीट आंध्रप्रदेश से थी, जहां पार्टी ने तेलगु देशम से गठबंधन किया था. 1977 में जनता पार्टी में विलय तक भारतीय जनसंघ की मूल पहचान हिंदुत्व समर्थक राष्ट्रवादी पार्टी की थी. अपने नए अवतार में भाजपा ने अटल बिहारी वाजपेयी की पहल पर उस पहचान से हटकर सबको साथ जोड़ने के प्रयास में गांधीवादी समाजवाद का रास्ता अख्तियार किया था. लेकिन पहली ही करारी पराजय ने जल्दी ही पार्टी को अपनी जड़ों की ओर वापसी के लिए मजबूर कर दिया था.

नामांकन के पहले अटल-माधवराव की बात

सिंधिया घराने ने एक दौर में अटल बिहारी वाजपेयी की पढ़ाई का खर्च उठाया था. राजमाता विजयराजे सिंधिया भाजपा के साथ थीं लेकिन उनके पुत्र माधवराव सिंधिया इमरजेंसी में जनसंघ छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए थे और लोकसभा में गुना सीट का प्रतिनिधित्व कर रहे थे.

उल्लेख एन.पी. ने अपनी किताब “बाजपेई: एक राजनेता के अज्ञात पहलू” में लिखा है कि ग्वालियर में नामांकन के पूर्व अटल बिहारी ने सिंधिया से जानना चाहा था कि क्या वे इसी सीट से चुनाव लड़ने का इरादा रखते हैं? उनके इनकार के बाद बाजपेई ने अपना नामांकन किया था. लेकिन आखिरी समय में माधव राव सिंधिया ने इसी सीट पर नामांकन करके अटल बिहारी वाजपेयी के लिए मुश्किल खड़ी कर दी.

Atal Bihari Vajpayee

अटल बिहारी वाजपेयी

ग्वालियर में अटल को फंसाए रखने का राजीव का दांव!

अटल बिहारी को अपनी ही सीट पर फंसाए रखने के लिए राजीव गांधी ने आखिरी समय तक इस सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार के नाम पर सस्पेंस बनाए रखा था. नामांकन के लिए तय आखिरी समय सीमा के ठीक पहले सिंधिया के नामांकन के बाद बाजपेई के लिए किसी दूसरे क्षेत्र तक पहुंच की गुंजाइश नहीं बची थी. विनय सीतापति ने अपनी किताब “जुगलबंदी” में दावा किया है कि आडवाणी ने सुन रखा था कि कांग्रेस ग्वालियर से माधवराव सिंधिया को खड़ा कर रही है. उन्होंने भांप लिया था कि चुनाव किस दिशा में जा रहे हैं. वे अपने सबसे अच्छे मित्र के लिए चिंतित थे. इसलिए चाहते थे कि अटल बिहारी ग्वालियर के साथ कोटा से भी लड़ें.

आडवाणी ने उनसे कहा भी लेकिन अटल बिहारी ने उन्हें बताया कि माधवराव से उनकी बात हुई है और वे कहीं और से चुनाव लडेंगे. हालांकि दूसरी तरफ उल्लेख एन.पी. ने लिखा कि चुनाव बाद माधव राव लोगों से कहा करते थे कि बाजपेई ने उन्हें अपने खिलाफ चुनाव लड़ने की चुनौती दी थी ताकि जनता की नज़र में अपनी औकात देख सकूं. अटल बिहारी ने इस तरह का झगड़ालू रवैया अपनाए जाने को झूठा बताते हुए कहा था, “अपने राजनीतिक विरोधियों से बुरा बर्ताव करना मेरे स्वभाव में नहीं है.”

राजा और रंक की लड़ाई !

यह दिलचस्प चुनाव था जिसमें माधव राव की मां राजमाता विजयराजे सिंधिया खुलकर अपने बेटे के खिलाफ अटल बिहारी का प्रचार कर रही थीं. मां-बेटे के रिश्ते पहले से ही खराब चल रहे थे. चुनाव प्रचार के दौरान इनमें और कड़वाहट आई. राजमाता अपने भाषणों में ‘एक ओर पूत और दूसरी ओर सपूत’ का जिक्र करते हुए अटल बिहारी के लिए वोट मांग रही थीं. लेकिन माधवराव सिंधिया की लोकप्रियता और उनके प्रति जबरदस्त जनसमर्थन का अटल बिहारी को अहसास हो गया था.

सिंधिया के दौरों में सड़क के दोनों ओर भीड़ उमड़ रही थी और उनके वाहनों के काफिले को रोककर महाराज के दर्शन के लिए जनता व्याकुल रहती थी.अटल बिहारी ने इसे गैरबराबरी का संघर्ष माना था और इसे राजा और रंक की लड़ाई कहा था.

हार ने अटल जी को किया था बुरी तरह निराश

चुनाव परिणाम की घोषणा के समय अटल बिहारी ग्वालियर में ही थे. अपनी करारी हार के साथ ही देश के हर हिस्से में भाजपा का सूपड़ा साफ होने की खबरों ने पार्टी के सबसे लोकप्रिय चेहरे पर उदासी की परतें चढ़ा दीं. चुनाव प्रचार के दौरान जख्मी अटल बिहारी का एक हाथ गर्दन में पड़ी पट्टी से लटका हुआ था. एक पैर की पर भी प्लास्टर चढ़ा हुआ था.

“जुगलबंदी” के मुताबिक, इस हालत में अटल बिहारी ने ग्वालियर से दिल्ली का 363 किलोमीटर का सफर कार से तय करने का फैसला किया. इस सफर में पत्रकार अजय बोस कुछ देर उनके साथ रहे. उन्होंने याद किया,” बाजपेई इतने दुखी थे कि कुछ बोल नहीं पा रहे थे. उन्हें लग रहा था कि यह उनकी राजनीति का अंत है. वे बहुत विषाद में थे. यह केवल उनका व्यक्तिगत अपमान नहीं था. उन्हें लग रहा था कि उनकी पूरी राजनीति ध्वस्त हो गई.”

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